महामना की कथा
डॉ. भानु शंकर मेहता, वाराणसी, भारत
मालवीय स्मृति व्याख्यान के अन्तर्गत महिला महाविद्यालय में आयोजित डा. भानु शंकर मेहता द्वारा दिया गया व्याख्यान।
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं ना पुनर्भवं
कामये दु:ख तप्तानां प्राणिनां आर्तिनाशनम्।
उत्थातव्यं, जागृतव्यं योक्तव्यं भूतिकर्मसु
भविष्यतीत्येन मन कृत्वा सततमव्यर्थ:।।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय की कौस्तुभ जयन्ती के अवसर पर युगावतार महामना पंडित मोहन स्मारक भाषण देने के लिये आमंत्रित करके आपने इस अिंकचन अतिथि वक्ता पर अपार कृपा की है। मैं कभी अध्यापक नहीं रहा,किसी विश्वविद्यालय का लेक्चरर, रीडर या प्रोपेâसर भी नहीं रहा। पेशे से डाक्टर हूँ पर विश्वविद्यालय से योग्यता प्राप्त डॉक्टर नहीं हूँ। फिर भी एक महान विभूति का स्मरण करना है जो विश्वविद्यालय बनाने के लिये निर्धनतम व्यक्ति का अनुदान भी स्वीकार करता था। इस दृष्टि से मेरा विश्वास है कि वे मेरी पुष्पांजलि स्वीकार करेंगे। अपनी बात कहने से पूर्व क्षमा याचना करना चाहता हूँ कि मैं राष्ट्रभाषा अंग्रेजी में अल्पज्ञान के कारण भाषण देने में असमर्थ हूँ। अत: आप मुझे अपनी वर्नाक्यूलर हिन्दी में बोलने की अनुमति दें। दूसरी बात यह कि हमारे स्मरणीय महापुरुष कथावाचक परिवार के सदस्य थे और स्वयं भी बड़े प्रेम से कथावाचन करते थे– यहाँ इस विश्वविद्यालय ने भी अनेक वर्षों तक उनके श्रीमुख से भागवत, पुराण, गीता और एकादशी की कथायें सुनी है अत: उनके प्रीत्यर्थ उनकी अपनी प्रिय शैली में उनकी `मालवीय पुराण - मदन मोहन कथा' कहने की अनुमति चाहूँगा।
ॐ नारायण नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवी सरस्वती चैव ततोजयमुदीत्येत् ।।
ॐ नरोत्तम नारायण, नर और देवी सरस्वती को नमस्कार करके जय (आधुनिक शिक्षा में विजय अभियान की) की घोषणा करनी चाहिए। अब कथा आरंभ करते भये
मालवीय पुराण – मदन मोहन कथा
एक बार प्राचीन धर्मधानी काशी में कुछ पर्यटक यात्री और जिज्ञासु छात्र छात्राएं नगर भ्रमण करते लंका क्षेत्र में पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक विशाल राजद्वार और उसके सामने स्थापित एक विशाल मानव मूर्ति देखी। साथ ही उन्होंने वहाँ ध्यानमग्न एक वयोवृद्ध कथावाचक सूत जी को देखा। उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके एक यात्री ने प्रश्न किया– हे ज्ञानी महाभाग, क्या आप हमें बता सकते हैं कि यह कौन-सा स्थान है?
यह राजद्वार किस भवन का है और यह किसकी प्रतिमा है? प्रश्न सुनकर सूत जी ने नेत्र खोले और स्मित के साथ कहा– जिज्ञासु सज्जनों और देवियों! आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया है– यह काशी का दक्षिणभाग है जहाँ से भगवती गंगा काशी में उत्तरवाहिनी होकर प्रविष्ट होती और जो पंचकोशी यात्रा का प्रवेश द्वार है। यह राजद्वार विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालय का प्रवेश द्वार है जिसके अन्दर विशाल भूभाग पर सवा सौ से अधिक विद्यालय हैं–छात्रों और ज्ञानियों के आवास हैं, खेलों के मैदान, अनेक प्रेक्षागृह और प्रयोगशालाएँ हैं। ज्ञानीजनों यहाँ कौन-सी विद्या उपलब्ध नहीं है–अभियांत्रिकी, तकनीकी, चिकित्सा, विधि, मानविकी, कृषि, उद्यानकी आदि अनेक विद्यालय, अस्पताल, पुस्तकालय, कला भवन, व्यायामशाला और विमान पट्टन सभी कुछ हैं। द्वार में प्रवेश करते ही मानव जाति के लिये सर्वाधिक आवश्यक महिला विद्यालय है। और यह जो प्रतिमा आप देख रहे हैं– इस महान विद्यालय के संस्थापक महामना, देवर्षितुल्य व्यक्ति की है जिसके संस्मरण मात्र से गंगा में स्नान करने जैसा पुण्य प्राप्त होता है। यह कहकर एक पर्यटक ने पूछा, `श्रीमान् , यह कौन व्यक्ति है जिसने इतना बड़ा काम किया?'
सूत उवाच– `हे परदेसी विद्वान, क्या आप इस महापुरुष की कथा श्रवण करना चाहते हैं?' तब सभी उपस्थित लोगों ने समवेत स्वर में कहा– `अवश्य, आप यह आश्चर्यजनक कथा सुनायें।'
सूत उवाच– `हे ज्ञान अर्जन हेतु उपस्थित लोगों, आपने मुझे यह कथा सुनाने के लिए आमंत्रित करके धन्य किया है। यह कथा जिस ऋषि-कल्प व्यक्ति की है उसके लिए कहा है `करि गुलाब को आचमन लीजियत वाको नाम'। पवित्र मन से ध्यानपूर्वक यह पुण्यमयी कथा सुनें जिसे मालवीय पुराण में कथा मदन मोहन की कहा है।
सूत जी कहते गये– हे विद्वतजनों, जरा स्मरण करें उस युग का जब प्रथम स्वतंत्रता संग्रम, आजादी की लालसा जगाकर चला गया था और चतुर्दिक नैराश्य भरा अंधकार छाया था। जब काले बादलों के छोर पर जैसे रूपहली प्रकाश रेखा उदित होती है वैसे ही अनेक ज्योतिपुंज प्रकट हुए जैसे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, बंकिम चन्द्र, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, रत्नाकर, अरविन्द, रवीन्द्रनाथ, गांधी, तिलक, गोखले,मोतीलाल आदि अनेक विभूतियां और इन्हीं में एक अत्यन्त प्रभामय ज्योति थी मदन मोहन मालवीय! जी हाँ, यही महानुभाव जा स्थाणु भाव से प्रतिमा बने आपके समक्ष खड़े हैं। एक छात्र ने पूछा– `मुनिवर क्या ये काशी के रहने वाले थे?'
सूत उवाच– `नहीं, ये प्रयागवासी थे पर काशीवासी हो गये। मैं आपको इनकी जन्म कथा सुनाता हूँ भारत में एक प्रदेश है `मालवा'। पंद्रहवीं सदी में यहाँ से चलते हुए कुछ चतुर्वेदी परिवार, गंगा-यमुनासरस्वती के त्रिवेणी संगम पर आ पहुँचे। सुरम्य प्रयागराज के आकर्षण से प्रभावित हो ये लोग यहीं बस गये। ये सब कृष्ण भक्त लोग यहाँ कथावाचन, ज्योतिष, पौरोहित्य, कर्मकांड और विद्याध्ययन करते हुए जीवन यापन करने लगे। इन्हीं में से एक परिवार या भागवतभक्त प्रेमनाथ चतुर्वेदी का था। उनके यशस्वी पुत्र ब्रजनाथ चतुर्वेदी– जो पुराण, भागवत् गीता की बात कथा कहते थे और इसी कारण ब्रजनाथ व्यास में व्यास जी अद्वितीय वक्ता थे और राधारानी के उपासक थे। उनकी पत्नी मूना देवी अपूर्व भागवत निष्ठावान वैष्णव थीं। परिवार गरीब था,कथावाचक पौरोहित्य से जो दान दक्षिणा प्राप्त होती उसी से खर्चा चलती थी। इसी भक्ति भीने परिवार में पौष कृष्ण विक्रमी १९१८ को अर्थात २५ दिसम्बर १८६१ के महीने में एक पुत्र का जन्म हुआ और उसका नाम हुआ मोहन– बालक था इतना सुन्दर और दिव्य प्रभाव मानो स्वयं गोपाल कृष्ण– मुरली मनोहर कृष्ण ने लिया हो। अष्टमी को ही तो कृष्ण भगवान का जन्म और मसीही २५ दिसम्बर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इस भगवान ईसामसीह– जीसस क्राइस्ट का जन्म अंग्रेजी राज में इस दिन प्रयाग के गिरजाघरों में मनाया जा रहा था और नवजात शिशु भारत दुर्दशा बहा रहा था। याद करें इसी वर्ष १८६१ में ६ मई मोतीलाल नेहरू का और ७ मई को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म हुआ।
सूत उवाच– देवियों और सज्जनों, ब्रजमोहन के कारण व्यास हो गये तो मूल वतन की स्मृति चलकर मदनमोहन ने अपने नाम के आगे देशवाचक संज्ञा लगा ली।अपने महान कार्यों के लोक में `महामना' के नाम से ख्यात हुए। एक यात्री ने पूछा `व्यास जी–महामना की कुछ बातें बतायें। ये बचपन में कहाँ पढ़ते थे?
सूत उवाच– हे महाभाग, आपकी जिज्ञासा के उल्लसित हूँ। सुनिये– वैष्णवता की घुट्टी पाकर परिवार में जन्मा बालक संस्कारों से पल्लवित हो। यहाँ आपको बता दूँ कि `वैष्णव' कोई साम्प्रदायिक है– यह तो नरसी मेहता के पीर पराई जानने का नाम है और महामना आजीवन सच्चे अर्थों में रहे। उनका जीवन चरित्र सुनिये तो आपको विश्वास हो जायेगा कि उनके समकक्ष पराई पीड़ा जानने वाले बिरले व्यक्ति होंगे। िंकवा यह बालक अल्प अवस्था में हरदेव जी का धर्मोपदेश पाठशाला में और फिर प्रवर्धिनी सभा की पाठशाला में अक्षर ज्ञान प्राप्त धर्मज्ञान में भी निष्णात हो गया। वैâसा मेधावी था यह बालक कि प्रयाग के माघ मेला में प्रवचन करने जाता था। नन्हें किशोर के मुँह से धर्म चर्चा सुनकर साधु समाज भी विभोर हो जाता और आशीर्वाद की वर्षा करता। नौ वर्ष की उम्र में उसका उपनयन हुआ और सरकारी जिला हाईस्वूâल में पढ़ने लगा। इसी के साथ संस्कृत शिक्षा भी चलती रही। स्वूâल की शिक्षा पूरी हुई तो यह म्योर सेण्ट्रल कालेज में भर्ती हुआ। यहाँ उसे गुरु मिले– महामहोपाध्याय आदित्य राम भट्टचार्य। इन्होंने सन् १८८० में हिन्दू समाज की स्थापना की थी और उनका प्रिय शिष्य मदन मोहन इस समाज का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया। यहीं क्यों उसने सन् १८८४ में मध्य हिन्दू समाज स्थापित किया।
कथा आगे बढ़ायें, तो सन् १८८४ में मदन मोहन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. पास किया। उन दिनों देश में तीन ही विश्वविद्यालय थे– बम्बई, मद्रास और कलकत्ता। वे आगे पढ़ना चाहते थे पर गरीबी आड़े गाई। कालेज छोड़ा और जिला विद्याल में पढ़ाने लगे। यहीं नहीं, पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए एक सेठ जी के छोटे बच्चे को पढ़ाने के लिए ट्यूशन भी करते थे और सेठ जी दो रुपये माहवार देते थे उन दिनों दो रुपये का बीस सेर दूध मिलता था और अक्सर सेठ दो रूपये भी काफी प्रतीक्षा कराकर देते थे। इस प्रकार मदन मोहन को धैर्य धारण की शिक्षा मिली। ताहू पर कुछ और, परम्परा अनुसार सोलह वर्ष की उम्र में अर्थात् सन् १८८७ में विवाह हो गया अर्थाभाव की कल्पना आप कर सकते हैं। धैर्य नहीं हारा और सन् १८९२ में विधि की परीक्षा– एल.एल.बी. पास कर ली। इससे पूर्व १८९१ में हाईकोर्ट वकील परीक्षा भी पास की और एल.एल.बी., वकालत पास कर प्रसिद्ध वकील बेनीराम कान्यकुब्ज के जूनियर के रूप में इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे। याद करें उन दिनों इलाहाबाद में मोतीलाल नेहरू जैसे दिग्गज वकील थे जो एक पेशी में खड़े होने का १०००) रुपये लेते थे (१९०४)।
प्रखर वाग्मी और सत्यनिष्ठ मालवीय जी की वकालत शीघ्र ही चल निकली। उनके निर्धन परिवार में प्रथम बार सुख समृद्धि और सम्पन्नता का आगमन हुआ। वकालत पेशे शिखर पर पहुँच कर इस आदर्श अधिवक्ता और पियूषवाणी ने सन् १९११ में १८ वर्ष से चलती वकालत छोड़ दी। एक पर्यटक विद्वान चीख कर बोले– क्या कहा वकालत छोड़ दी? क्यों?
सूत उवाच– यही तो इस कथा का आश्चर्यजनक मोड़ है– त्याग का अनुपम उदाहरण है। इस त्याग कथा को समझने के लिए कुछ अन्य कथाएं जानना आवश्यक है। एक तो गुरु कृपा की कथा है। सन् १८८५ में नेशनल कांग्रेस बनी और उसका दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हो रहा था सन् १८८६ में। आदित्य राम अपने शिष्य के साथ वहाँ गये थे। यहाँ गुरु ने शिष्य को देशभक्ति पर भाषण देने को कहा। मदन मोहन पहले तो घबराये, फिर भाषण देना आरम्भ किया। सधी हुई वाणी, तर्वâसंगत भाषा सुनकर लोग चकित रह गये। वाग्देवी प्रसन्न हुई और देश के प्रबुद्ध वर्ग राजनियकों में स्थान बन गया।
सज्जनों! मैंने बताया कि वे सफल वकील बन गये थे पर वैसे वकील थे कि वे किसी विवाद में दोनों पक्षों को अदालत जाने से रोकते थे और किसी भी शर्त पर झूठे मुकदमें नहीं लेते थे। उनके यहाँ हिन्दी के सुख्यात विद्वान पं. बालकृष्ण भट्ट आते थे। वे देखते कि कोई समाजसेवी आ गया तो मुवक्किलों को विदा कर देते– किसी दूसरे वकील के पास भेज देते। भट्ट जी ने एक बार कहा `मदन, तुम्हारी चाल हमें पसंद नहीं। जौन चार पैसा दे जाते हैं उन्हें खसकाय देत हौ और ई सबन के पेर में वखत खपाय रहे हौ।' वकालत का पेशा उन्हें रास नहीं आ रहा था। वकालत के साथ ही सन् १८८७ में उन्होंने राजा रामपाल िंसह के लिए `हिन्दुस्तान' दैनिक का ३ साल संपादन किया। सन् १९०० में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में महाराज काशी नरेश की सहायता से हिन्दू होस्टल बनवाया। महानुभावों आप उन्हें संपादक रूप में बार-बार देख सकते हैं `इंडियन यूनियन' साप्ताहिक अभ्युदय, मासिक मर्यादा में देख सकते हैं सन् १९०९ में अंग्रेजी दैनिक `लीडर' की स्थापना की जिसने देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उसी वर्ष १९०९ में लाहौर कांग्रेस में वे कांग्रेस के सभापति पद पर प्रतिष्ठित हुए। तूफानी दिन थे, १९०८ में प्रेस एक्ट पास हो गया था– अरविन्द और तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चल रहा था। िंमटोमार्ले रिफार्म में मुसलमानों की अलग वोट का अधिकार दिया गया था। उनकी वकालत के बारे में क्या कहूँ– न्यायधीश भी उनके पाण्डित्य, वाग्मिता और सदाचरण से प्रभावित थे, सर तेज बहादुर सप्रू की राय में ऐसी विद्वता क्षमता और ईमानदारी बिरले वकीलों में होती है। अंग्रेजी में उनका वैसा अधिकार था कि हाउस ऑफ कामन्स में कहा गया– `आक्सफोर्ड या वैâम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्त किये बिना ही मालवीय जी ने एक विदेशी भाषा में इतनी पैठ और ऐसी अभिव्यक्ति सामथ्र्य वैâसे प्राप्त कर ली यह घोर आश्चर्य का विषय है। ऐसे समय वकालत छोड़ने का निर्णय क्यों लिया?' उनके पिता ने एक दिन कहा कि पुत्र दो नाव में पांव रखकर नहीं चलना चाहिए। या तो वकालत कर लो या विश्वविद्यालय बनाने का प्रयत्न करो। महामना ने तत्काल वकालत त्यागने का निर्णय ले लिया। पिता ने इस संकल्प को आशीर्वाद दिया उन्हें सिद्धान्त दर्पण की पोथी और कल्पित विद्यालय के लिये पहला ५१ रुपये का दान दिया। एक न्यायाधीश ने कहा गेंद मालवीय के पाले में पड़ी थीं पर उन्होंने उसे किक् नहीं किया। गोखले कहते थे `त्याग तो मालवीय का है।' आप कहेंगे वे शायद नीरस हृदय पंडित थे। जी नहीं, वे बड़े रसिक, विनोदप्रिय, संगीत प्रेमी, सुहृदय मनुष्य थे। १४ वर्ष की उम्र में वे माक्कड़सिंह नाम से ब्रजभाषा में हास्य निबंध और कविताएं लिखते थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का शिष्यत्व प्राप्त कर वे कवि मकरंद के नाम से कविता भी लिखते थे। यही नहीं, वे नाटकों में अभिनय भी करते थे।
इतिश्री मालवीय पुराणे मदन मोहन कथायां– प्रथमो अध्याय:
महामना का इतना परिचय जानने किे बाद उनके त्याग से प्रबावित श्रोताबृंद ने व्यास जी से पुन: पूछा– उन्होंने त्याग क्यों किया और त्याग करने पर क्या किया?
सूत उवाच– हे सहृदय श्रोताओं, त्याग के बाद की कथा बड़ी रोचक है। गुरु ने मंत्र दिया था हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान। देश की सेवा करो। देश में देश की भाषा में उच्च शिक्षा दो उन्होंने देखा तीन विश्वविद्यालय थे और उनमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था।मुगलों के राज्य में अनेक मदरसे बने थे जहाँ अरबी फारसी में शिक्षा दी जाती थी। फिर आये योरप से आक्रमणकारी और व्यवसायी– पुर्तगाली बच्चों की शिक्षा के लिए १८वीं सदी में वैâथोलिक चर्चों ने स्वूâल बनाये। हिन्दुस्तानी नेटिब्स को खेती और देसी दस्तकारी की शिक्षा का भी प्रबंध हुआ। क्रिश्चियन्स को उच्च शिक्षा देने हेतु जेसूट कालेज और धर्मगुरू बनाने के लिए संस्थाएँ (सेमिनरी) स्थापित हुई। अंग्रेज आये तो डंकन ने बनारस में संस्कृत स्कूल बनाया और सन् १८०० में फोर्ट विलियन कालेज बना जहाँ कम्पनी के जूनियर सिविल सर्वेट् के लिए शिक्षा दी जाती थी। शिक्षाविद् विद्वान लार्ड राय अंग्रेजी पढ़कर कुछ ही वर्षों में भारत का ईसाई धर्म ग्रहण कर लेगा। हिन्दुओं को `बाबू' शिक्षा पद्धति शुरु हुई जो आज भी चल रही है। कि देश ईसाई हो जायेगा तो अंग्रेजी राज्य आयेगा। कुछ अंग्रेज विद्वानों ने विरोध भी किया था। लोगों को पढ़ाओ लिखाओ मत, नहीं तो वे भी आवाम की तरह आजादी का संघर्ष छेड़ देंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में सन् १९०१ में भारत में विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात लार्ड कर्जन ने सोची और इंडियन यूनिवर्सिटीज एक्ट पास हो गया। अंग्रेजों के कुचक्र को काटने उन्हीं के देश से भारती बना पहने भारत आ गयी। उनमें ब्लावाटस्की और कर्नल आल्काट थे, थियोसोफी प्रेम था। ये थीं मैडम ऐनी बेसेंट– जन्मी इंग्लैण्ड में पर कर्मभूमि बनाया भारत को १८९० में। कथा में एनी बेसेंट जिन्हें हम मां बसंत कहते हैं, कम नहीं है। माँ बसंत ने देखा भारत के लोगों में उनकी राष्ट्रीय भावना का ह्रास हो चुका है। मिशनरी स्कूल हैं जो ईसाई धर्म का प्रचार करते सरकारी स्कूल हैं जो ईसाई धर्म का प्रचार कर सरकारी स्वूâल बाबू तैयार करते हैं। यह अंग्रेजी की राष्ट्रीयता और आध्यात्मिकता नष्ट कर रही है जरूरी है भारत का प्राचीन आदर्श पुन: स्थापित हो, की ज्योति पुन: प्रगट होकर देश को प्रकाश दे उन्होंने सन् १८९८ में सेन्ट्रल हिन्दू स्वूâल की स्थापना की उन्होंने दावे से कहा– यदि भारत मरेगा तो कौन भारत जीयेगा, तो कौन मर सकता है?
इधर मदन मोहन ने भी शिक्षा की बात से देश की स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरु किया पर वे शिक्षा को राजनीति की अनुगामिनी नहीं कहते `आजादी के लिए प्रतीक्षा की जा सकती, शिक्षा के लिये नहीं।' इसी कारण असहयोग आंदोलन उन्होंने कभी विश्वविद्यालय बंद नहीं किया। धन, ज्ञान निष्ठा– सरस्वती के द्वारा कभी मुँदे नहीं लिये भी नहीं। कृपा कर भ्रम न पालें, महामना की उपेक्षा नहीं कर रहे थे, वे कहते थे सरस्वती बड़ी माँ है, लक्ष्मी छोटी माँ। सरस्वती पुत्र भूखा नहीं मरता।
उनके मन में एक नयी शिक्षा पद्धति– भारतीय ज्ञान विज्ञान की शिक्षा की बात घुमड़ रही थी। वे अपने मित्रों सहयोगियों से परामर्श करने लगे। अपने अंग्रेज और साथी मोती लाल नेहरू से राय ली तो उन्होंने कहा `तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? अगर तुम एक स्वूâल या कालेज खोलना चाहते तो बात समझ में आती। एक विश्वविद्यालय खोलना किसी एक व्यक्ति के लिए संभव है क्या?' प्रयाग के वरिष्ठ वकील सर सुंदर लाल चुटकी लेते– `क्यों, तुम्हारा वह`टॉय' विद्यालय बना क्या?' उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष गोखले से कहा तो उन्होंने कहा `तुम पागल हो गये हो क्या?' पर महामना का संकल्प अडिग था। सभा में बैठे एक यात्री ने पूछा– तो विश्वविद्यालय कैसेस बना?
सूत उवाच– भाई यही तो बता रहा हूँ। कोई चीज ऐसे ही थोड़े बनती है। सबसे पहले अध्ययन और विचार मंथन करना पड़ता है। और यही मदन मोहन बैठ गये पढ़ने– क्या भारत में कोई विद्यालय था या पाश्चात्य (और कुछ आधुनिक भी) इतिहासकारों की तरह यह मान लें कि दसवीं सदी से पूर्व भारत एक बर्बर-जंगली देश था यहाँ के शास्त्र-पुराण कल्पना मात्र हैं क्या? गहन अध्ययन करके महामना ने पाया– वैदिक युग में ऋषियों और ऋषि-पत्नियों के आश्रम थे जहाँ समस्त ज्ञान विज्ञान की ९४ | शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थी सामान्य व्यवहार बुद्धि पाकर पूर्णता की ओर चलते तथा ब्रह्म साक्षात्कार की चेष्टा करते। मन-वचन-कर्म की सहकारिता की शिक्षा जो जीवन में ऋतं च सत्यं बन सके। शिक्षा गुरुगृह में होती थी जहाँ विद्यार्थी परिवार का सदस्य बनकर जीने की कला सीखता था, शिक्षा की अवधि १२ वर्ष, ३२ वर्ष और कभी आजीवन होती थी। श्रवण द्वारा विद्या प्राप्त होती थी और स्मृति का बहुत महत्त्व था। इसीकारण सूत्र शैली का विकास हुआ। यहाँ गुरु या ऋषि वेद, वेदांग, दर्शन शास्त्र, संगीत, ललितकला, व्याकरण, देवविद्या, ब्रह्म विद्या, शिल्प शास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र, भूतविद्या, युद्ध कला आदि सब कुछ पढ़ाते थे। चारों पुरुषार्थ पाने की विद्या में छात्र निष्णात होकर मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ते थे। तीन प्रकार की संस्थाएं थीं गुरुकुल, परिषद (विशेषज्ञों द्वारा प्रदत्त ज्ञान) और तपस्थली (जहाँ सम्मेलन तथा प्रवचन होते थे, जैसे नैमिषारण्य)। उन्होंने देखा भारत में अनेक विद्याश्रम थे यथा भरद्वाज आश्रम, वशिष्ठ आश्रम। यहाँ हजारों विद्यार्थी पढ़ते थे।
आश्रमों में अनेक विभाग होते थे जैसे अग्नि स्थान, ब्रह्म स्थान (वेद), विष्णु स्थान (राजनीति अर्थ), महेन्द्र स्थान (सैनिक),विवस्वता स्थान (वनस्पति शास्त्र), सोम स्थान (ज्योतिष), गरूड स्थान (संवहन), कार्तिक स्थान (युद्ध कौशल)। मालिनी नदी तट पर कण्व का आश्रम था, काश्य संदीपन का उज्जैन में था जहाँ कृष्ण सुदामा पढ़ते थे। नैमिषारण्य में शौनक का आश्रम था जहाँ २६००० विद्यार्थी और ऋषि पढ़ते थे। बुद्ध युगमें आश्रम थे– संघाराम, जेतब, राजगृह,नालंदा आदि, वैशाली और पावा के भव्य विहार थे। ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व स्थापित तक्षशिला के दर्शन सिवंâदर ने किये थे और उस समय काशी में भी विश्वविद्याल था। पांचवीं सदी का वल्लभी विश्वविद्यालय, दिव्यकर्णामृत विश्वविद्यालय कांची, विक्रमशिला, ओदंतपुरी और १२वीं सदी का जगदलपुर का विश्वविद्यालय नदिया– नवद्वीप का लक्ष्मणसेन विद्यालय, काश्मीर का शारदा पीठ पुकार पुकार कर अपने अस्तित्व का प्रमाण दे रहे थे– भले नये विद्वान उन्हें कोरी कल्पना कहें। अध्ययन करते महामना ने पाया समाज सुधार के प्रयत्न भी होते रहे हैं– साक्षी देने आये ब्रह्मो समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रानाडे का आंदोलन, थियोसोफी, हिन्दू मेला, स्वदेशी आन्दोलन, राजा राममोहन राय का आंदोलन, भारत माता की स्थापना और वंदेमातरम् का उद्घोष। मुक्ति संग्राम की लम्बी कड़ी में उन्होंने १८८५ में इण्डियन कांग्रेस की स्थापना को देखा। क्रांतिकारी आन्दोलन की लम्बी परम्परा भी देखी। सन् सत्तावन का प्रथम युद्ध अभी जीवित था। व्यापारी अंग्रेज शासक बन रहा था और सोच समझकर विद्या की जड़ें काट रहा था। उन्होंने माँ बसंत के दर्शन किये और उनकी व्यथा समझी कि वैसा आश्चर्य है कि यहाँ के स्कूलों में भारत का नहीं इंग्लैण्ड का इतिहास पढ़ाया जाता है (जो सन् ४७ तक पढ़ाया जाता रहा)। दर्शन के जनक देश में पाश्चात्य दर्शन पढ़ाया जाता है– सुकरात,अरस्तु, बेकन, स्पिनोजा, कांट, स्पेंसर तथा शापेनहावर का ज्ञान दिया जाता है। तब इस महापुरुष के मन में एक स्वप्न साकार होने लगा।
इति मालवीय पुराणे– मदन मोहन कथायां प्राचीन शिक्षाया:
द्वितीयोऽध्याय:।
एक जिज्ञासु ने पूछा– हे कथावाचक महोदय, वैसा वह स्वप्न?
सूत उवाच– श्रीमान् वही तो बताने जा रहा हूँ, बहुत ध्यान से सुनियेगा। अंग्रेजी राज द्वारा भारतीय अस्मिता पर शिक्षा द्वारा आघात से मर्माहत महामना ने एक स्वप्न संजोना आरंभ किया। उन्होंने देखा एक विशाल विश्वविद्यालय प्रयाग से काशी तक ८० मील के लम्बे गंगा तट पर बसा जहाँ लाखों विद्यार्थी तट पर बैठे वेदपाठ करते हों– फिर स्वप्न अव्यवहारिक प्रतीत हुआ। क्षेत्र छोटा हुआ। तो कहाँ बने विद्यालय? हाँ, काशी में– दक्षिण में शूलटंकेश्वर से उत्तर में स्थित गोमती संगम तक ३७ मील के विस्तार में। मगर काशी क्यों? क्योंकि यहीं ज्ञान की पहली ज्योति जगी थी– यहीं दिवोदास, धन्वन्तरी, अगस्त्य, लोपामुद्रा, सुश्रुत और काश्य संदीपन, योगाचार्य पतंजलि, जैन धर्म प्रवर्तक पाश्र्वनाथ,भगवान बुद्ध, आदिशंकराचार्य, महर्षि व्यास,कबीर-तुलसी, भारतेन्दु, रत्नाकर, पंडित राज जगन्नाथ, अली हजी जैसे अनेक महान संत और गुणी साहित्यकार-शिक्षाशास्त्री हुए, हाँ यही भारत की सांस्कृतिक राजधानी, साहित्य-कला कौशल की, सर्व विद्या की राजधानी है। यहीं बनेगा विश्व का अनूठा –भारतीय विश्वविद्यालय। स्वप्न आगे चला। एक विश्वविद्यालय जहाँ (१) श्रुति, स्मृति और पुराणों द्वारा प्रकल्पित सनातन धर्म सम्मत ज्ञान द्वारा आचार्यों का प्रशिक्षण हों (२) संस्कृत भाषा और साहित्य के अध्ययन का संवर्धन हो (३) संस्कृत और प्रान्तीय भाषाओं के माध्यम से विज्ञान और तकनीकी ज्ञान का प्रशिक्षण हो जिससे देश की प्रगति हो। इस विश्व स्तरीय विद्यालय में एक हो वैदिक विभाग जहाँ वेद, वेदांग, स्मृति,दर्शन, इतिहास, पुराण पढ़ाये जायं जहाँ वेधशाला, ऋतु पर्यवेक्षण और ज्योतिष के विभाग हों। दूसरा हो आयुर्वेद विभाग, अस्पताल, प्रयोगशाला, वनस्पति उद्यान और पशु चिकित्सा विभाग। तीसरा हो स्थापत्य वेद विद्यालय जहाँ अर्थशास्त्र, भौतिकी, यांत्रिकी और विद्युत अभियांत्रिकी आदि का प्रशिक्षण। चौथा हो रसायन विभाग जहाँ रासायनिक वस्तुओं के उत्पादन की शिक्षा दी जा सके। पाँचवां– तकनीकी कालेज जहाँ मशीन से घरेलू और व्यक्तिगत उपयोग की चीजें बनाना सिखाया जाय। यहाँ भूगर्भ शास्त्र,उत्खनन और धातुविद्या प्राप्त हो सके। छठवां विभाग कृषि विद्यालय हो। सातवां हो गांधर्व विद्यालय जहाँ संगीत, नाटक, ललित कलाओं की शिक्षा दी जाय। स्थानीय कला कौशल और उद्योग धैर्य सिखाये जां। आठवां एक भाषा विज्ञान कालेज को जहाँ छात्रों को देशी विदेशी भाषाएं सिखायी जायं। जिससे भारतीय भाषाएँ समृद्ध हो और देश विज्ञान और कला की अधुनातन प्रगति से अवगत हो। आगे सोचा वैदिक विभाग का दायित्व तो सनातन धर्म के जानकारों पर हो। अन्य विभागों में सभी सम्प्रदायों के छात्रों के लिए प्रवेश खुले हों और जाति धर्म निषेध बिना सबको शिक्षा दी जाय।
इति मालवीय पुराणे – मदन मोहन कथायां तृतीयो स्वप्नदर्शन अध्याय:।
इतनी कथा सुनने के बाद हर्षित श्रोताओं में से एक ने प्रश्न किया– `हे महाभाग,यह स्वप्न विश्वविद्यालय बना क्या?'
सूत उवाच– बीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर बना स्वप्न धीरे-धीरे रूपायित होने लगा। सन् १९०५ में बंगाल विभाजन के तूफानी दिनों में काशी में राजघाट पर नेशनल कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। सभापति थे श्री गोपाल कृष्ण गोखले, और अनेक राष्ट्रीय नेता जैसे लाल, बाल पधारे थे। यहाँ मालवीय जी ने नेताओं के समक्ष प्रस्ताव रखा।उनके समक्ष `प्रास्पेक्टस आफ ए प्रपोज्ड हिन्दू यूनिवर्सिटी फार साइंटिफिक टेव्निâकल एण्ड आर्टिस्टिक एजुकेशन एण्ड रेलिजस इंस्ट्रक्शन्स एण्ड क्लासिकल कल्चर' रखा। कई लोगों ने सवाल उठाये, पूछा कि क्या जरूरत है विश्वविद्यालय की, काशी में ही क्यों? प्रस्तावक ने सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। बताया कि १९०२ में शिमला कमीशन बना है क्यों कि एक मुस्लिम विश्वविद्यालय की माँग बढ़ती जा रही है। १९०३ में आगा खान ने कहा कि अधिकतर मुसलमान बनारस में हिन्दू युनिवर्सिटी की स्थापना का स्वागत करेंगे। साथ ही पूना, बंगाल और मद्रास में भी हिन्दू युनिर्विसटी ही बने बशर्ते कि अलीगढ़ में मुस्लिम युनिर्विसटी स्थापित हो और सारे भारत के मुस्लिम कालेज इससे सम्बद्ध हो मालवीय जी ने बताया कि काशी नरेश इस प्रस्ताव से पूर्णत: सहमत हैं– वे जमीन भी देंगे, धन भी। यह प्रास्पेक्ट्स काशी के िंमट हाउस में हुई। एक सभा द्वारा पारित हो चुका है। महाराज दरभंगा भी प्रस्ताव से सहमत हैं। वे तो काशी में सनातन धर्म विश्वविद्यालय स्थापित करने का संकल्प कर रहे हैं। श्रीमती बेसेंट ने सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल स्थापित कर लिया है और वे अब एक युनिर्विस्टी आफ इण्डिया बनाने की सोच रही हैं। उन्होंने बताया कि दोनों से विचार विमर्श किया है और हम तीनों की योजना एक हो जायेगी। यद्यपि कांग्रेस में इसे एक पागलपन समझा गया पर लाला लाजपत राय ने कहा `चार्टर मिले या न मिले, विश्वविद्यालय बनके रहेगा। अब तो आस्थिक मन में निश्चय दृढ़ हो गया।
सुधिजनों, संकल्प यात्रा आगे बढ़ी। सन् १९०६ में प्रयाग में कुम्भ मेला लगा था– देश भर से साधु सन्यासी महात्मा पधारे थे। मालवीय जी ने संगम तट पर विश्वविद्यालय स्थापित करने का संकल्प लिया और इस कार्य हेतु अपना जीवन अर्पित किया। उस विशाल विद्वत सभा ने प्रस्ताव का अनुमोदन किया और कार्यान्वयन के लिए एक समिति गठित की। विश्वविद्यालय की स्थापना तक की कथा बहुत लम्बी है। पर इतना जान लें कि जब भारत सरकार को प्रस्ताव भेजा गया तो उन्होंने कहा एक करोड़ रुपये (आज के एक अरब रुपये से अधिक) इकट्ठे करो तब विचार करेंगे। एक बहुत बड़ी चुनौती थी। शिक्षा जगत् के ऋषि ने चुनौती स्वीकार कर ली और भिक्षा पात्र लेकर ग्राम-ग्राम, नगर-नगर घूमने लगे। किसी ने एक रुपया दिया तो किसी ने लाख रुपये। बूंदों से सरोवर भरने लगा।
एक जिज्ञासु बोल उठे– `तो महाराज धन इकट्ठा हो गया क्या?'
सूत उवाच– `हाँ, सत् संकल्प कभी विफल नहीं होता। मदन मोहन की यह भिक्षाटन कथा एक महाग्रंथ की कथा है। गांधी जी उन्हें `ग्रेटेस्ट बेगर' के अलंकरण से विभूषित किया।
एक छात्र ने कहा `महाराज, हमें इस भिक्षा यज्ञ के बारेमें कुछ तो बताइये।'
सूत उवाच– `वत्स तुमने बड़ा अच्छा शब्द प्रयोग किया है `भिक्षा यज्ञ'। आपको दो तीन कथाएं सुनाता हूँ जिससे आपको अनुमान हो जायेगा कि यह यज्ञ वैâसा था। उन दिनों भारत के सबसे बड़े धनकुबेर थे हैदराबाद के निजाम। मालवीय जी निजाम से मिलने हैदराबाद पहुँचे। सचिव समझ गये, यह व्यक्ति निजाम से धन वसूलने आया है और व्यस्तता का बहाना बना दिया।
मालवीय जी ने पता लगाया कि दो दिन बाद निजाम साहब भिखारियों को दान देने के लिए एक स्थान विशेष पर जायेंगे। मालवीयजी वहाँ पहुँचे– देखा सैकड़ों भिखारी एक कतार में बैठे हैं। वे भी उसी पंक्ति में बैठ गये। निजाम आये और जकात बांटते मालवीयजी के पास आये तो चौंक गये। पूछा अरे आप यहाँ। महामना का उत्तर था मैं भी एक भिखारी हूँ, मुझे भी भिक्षा दें। हतप्रभ निजाम ने कहा आप मेरे साथ आयें– मैं अलग से बात करूँगा। उसी दान के फलस्वरूप आज हैदराबाद कालोनी विद्यमान है। सोचिये, एक विश्वविद्यालय के लिए कोई इतना स्वाभिमान त्याग करेगा क्या?
दूसरी कथा चहारदीवारी की है। आप देख रहे हैं न कि यह विद्यालय चहारदीवारी से घिरा है। आप इस द्वार से चहारदिवारी छूते पश्चिम चलें तो पुन: फाटक तक आते-आते थक जायेंगे। आप सोच सकते हैं कि इतनी लम्बी चहारदीवारी बनाने में कितना धन लगा होगा? सन् १९३६-३७ तक इस विश्वविद्यालय के चारों ओर कोई चहारदिवारी नहीं थी– पूर्णत: असुरक्षित था स्थान। महाराज बलरामपुर का निधन हो गया था। पर महामना ने रानी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया था और महाराज की मृत्यु के तीन मास बाद पुत्र पैदा हुआ। कुछ वर्ष बाद राजकुमार का मालवीय जी ने यज्ञोपवीत कराया। राजमाता ने कहा `पंडित जी, आपके आशीर्वाद से राज्य को उत्तराधिकारी प्राप्त हुआ है, आप जो कहें मैं दान देना चाहती हूँ।' चतुर पंडित ने कहा यज्ञोपवीत में रस्म के अनुसार सबसे पवित्र वस्त्र दान होता है, आप मुझे वही दान में दें। उन्होंने आगे कहा– माता सरस्वती अभी तक निर्वस्त्र हैं यानी विश्वविद्यालय की अपनी चहारदीवारी नहीं है, आप उसे वस्त्र दें ताकि माता खुश हो जाय। और इस प्रकार चहारदीवारी और प्रवेश द्वार बना। निश्चय ही महामना को दान लेने की कला आती थी। एक बार कलकत्ता गये थे। एक मारवाड़ी सेठ के पैर का फ्रेक्चर हो गया था। उन्हें देखने गये। सेठ जिस विस्तर पर सोये थे वह उस दशा में आरामदेह नहीं था। मालवीय जी ने सुझाव दिया कि आप आर्थोपीडिक बेड पर लेंटें, आराम मिलेगा। एक सप्ताह बाद पुन: गये तो सेठ ने कहा इस बेड से मुझे बहुत आराम मिला। तब महामना जी ने पूछा– कुछ दान पुण्य भी किया या नहीं? सेठ बोले अभी तो नहीं। तब मालवीय जी बोले आप एक सौ आर्थोपेडिक बेड हिन्दू विश्वविद्यालय के अस्पताल को दान कर दें।
एक बार काश्मीर नरेश काशी पधारे। महामना पीताम्बर पहने हाथ में गंगाजल लिये उनके समक्ष आये और बोले प्रात:काल एक ब्राह्मण गंगा स्नान करके आपके सामने खड़ा, दान के लिए इससे बड़ा सुअवसर कहाँ मिलेगा? नरेश ने एक लाख रुपया तत्काल दिया। मालवीय जी बोले यह तो ठीक है पर आपकी पत्नी की तरफ से भी तो दान मिलना चाहिए। दान राशि दुगुनी हो गयी।
ऐसे ही उदयपुर के महाराज ने कहा कि मैं आपको दान तो दूँगा पर आपको अपने लिए एक लाख लेना होगा। इस शर्त पर उन्होंने विश्वविद्यालय को दो लाख रुपये दिये। बाद में महाराज को सूचित किया कि मैं विश्वविद्यालय को अपने से अलग नहीं समझता, अस्तु आपके द्वारा दिया गया सम्पूर्ण धन कला संकाय भवन के निर्माण पर खर्च कर रहा हूँ।
सज्जनों, आपने इस भिक्षाटन करते ब्राह्मण की भव्य कथा सुनी। शास्त्र मे लिखा है कि सच्चा ब्राह्मण भिक्षाटन करके ही भोजन प्राप्त करता है। महामना जीवन भर बाबू शिव प्रसाद गुप्त के यहाँ से आये सीधा सामग्री से रसोई बनाकर भोजन करते थे। इति श्री मालवीय पुराणे– मदन मोहन कथायां भिक्षाटन: कथानम चतुर्थोऽध्याय:।
इतनी कथा सुन भाव विभोर एक छात्रा ने प्रश्न किया कि महाराज, मालवीय जी का स्त्रियों के प्रति क्या विचार था?
सूत उवाच– हे देवी, महामना स्त्री को माता स्वरूप मानकर उनकी पूजा और भक्ति करते थे। नारी की उन्नति के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। अपने विद्यालय में प्राथमिकता देते हुए उन्होंने यह महिला कालेज बनाया। वे विधवा विवाह के समर्थक थे और अपने पुत्र का अंतर्जातीय विवाह कराया। सन् १९४५ की बात है वेद विभाग में लड़कियों का प्रवेश निषिद्ध था, उन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। कल्याणी नामक छात्रा ने वेद विभाग में प्रवेश की अर्जी दी। पंडित मंडली ने विरोध किया, तब मालवीय जी ने शास्त्रार्थ करके सबको मूक कर दिया। उन्होंने कहा कि अनेक वेदमंत्रों की द्रष्टा अनेक ऋषिकाएं हुई हैं यथा सूर्या, सावित्री, घोषा, अपाला, असंघति, लोपामुद्रा, गार्गी मैत्रेयी आदि। और तो और जब मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में शंकराचार्य से हार गये तो उनकी वेदज्ञ पत्नी भारती ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारा और पराजित किया। कल्याणी को वेद पढ़ने की अनुमति मिल गयी। छोटी उम्र में बालिकाओं के विवाह का उन्होंने विरोध किया। मालवीय जी का छात्राओं के प्रति इतना वात्सल्य था कि हमें लगता ही नहीं था कि हम घर परिवार से दूर है, वे छात्राओं को अपनी पुत्रियां मानते थे। उन दिनों लड़कियों के संगीत सीखने का प्रचलन नहीं था। विश्वविद्यालय में सबसे पहले मालवीय जी ने लड़कियों के संगीत सीखने की परंपरा शुरु की। स्त्री जाति की रक्षा, शिक्षा और उत्थान एक प्रबल योजना उनके मन में बराबर बनी रही। उस जैसा स्त्री का सम्मान करने वाला शायद ही कोई मिले।
इति मालवीय पुराणे– मदन मोहन कथा नारी जाति शिक्षा प्रयास: नाम पंचमोऽध्याय:।
तब एक पर्यटक ने प्रश्न किया कि हे विद्वान कथावाचक जी, हम महामना के कुछ और संस्मरण सुनना चाहते हैं।
सूत उवाच– हे भद्रजन, आपकी इच्छा पुण्यवती है। महासागर से महान इस महापुरुष के संस्मरण भी इतने ही विशाल है। वे परम सनातन धर्मी उदारवादी, अछूतोद्धारक हरिजन सेवक, खद्दर प्रेमी, स्वयं भावनायुक्त, हिन्दी भाषा का अनन्य प्रेमी जो अपने दो अपना राज्य चाहते थे वे लेखक थे, पत्रकर थे, निष्काम सेवक थे, सत्यनिष्ठ देशसेवक थे। उनके जैसा दयावान ढूँढ़े नहीं मिलेगा। उनका लक्ष्य इस श्लोक में व्यक्त है।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।
कुछ लोग उनकी धर्मनिष्ठा से चौंकते हैं पर हिन्दू को भौगोलिक शब्द मानते थे (जो भी हिन्द देश के वह हिन्दू) दूसरे सनातन धर्म की सार्वभौमिकता के पास थे। वे कहते थे मेरे घर में ब्राह्मण धर्म है, परिवार सनातन धर्म है, समाज में हिन्दू धर्म है, देश में स्वतंत्र्य है और विश्व में मानव धर्म है। उनके त्याग की गोपाल कृष्ण गोखले कहते थे त्याग तो मालवीय जी ने किया है। बचपन में निर्धनता का कटु अनुभव करने के बाद जब धन आया तो देश सेवा के लिये उस वैभव को ठुकरा दिया। गांधी जी तो कहते थे मैं मालवीय जी महाराज का पुजारी हूँ। गांधी जी जब भारत आये तो तिलक हिमालय प्रतीत हुए, गोखले सागर से गंभीर लगे पर जब महामना के पास गया तो मुझे गंगा से निर्मल लगे। ज्ञानी जनों, यह महात्मा अद्भुत वाग्मीय, घंटों तक अबाध गति से प्रांज्वल भाषा में भाषण दे सकते था। विश्वविद्यालय के आरम्भ में छात्रावास में खड़े होकर कनस्टर पीट कर छात्रों को इकट्ठा करते और उपदेश देते। महात्मा गांधी श्रेष्ठ पैरोकार मानकर ही राउण्ड टेबुल कान्प्रेâन्स में ले गये। वे धर्म को दीपक मानते थे क्षमा की लौ जलती हो। वे सर्वधर्म समभाव वादी थे। कहते थे– ईश्वर एक है, जमीं एक है, हल एक है तब झगड़ा वैâसा? राजनीति में वे नेशनल कांग्रेस के चार बार सभापति रहे– सन् १९०९, १९१८, ३२, ३३ में, वे कानून तोड़कर जेल भी गये। असहयोग में हड़ताल आदि के विरोधी थे। कहते थे स्वतंत्र भारत में इसका दुरुपयोग होगा। वे कहते थे पुष्ट को लाठी से मारना चाहिये। हरिजन आंदोलन में उन्होंने कट्टरपंथियों का विरोध सहा, हरिद्वार में शास्त्रार्थ किया, हरिजनों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाया।
उनका सर्वाधिक जोर प्रारम्भिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, स्वदेशी और आत्म निरीक्षण पर था। वे कहते थे सरस्वती लक्ष्मी से बड़ी है, किताबें सरस्वती माँ का आँचल है। उन दिनों घोटाला नहीं होता था, उन्होंने भिक्षाटन करके एक करोड़ दस लाख बटोरा जिसकी एक एक पाई इस विश्वविद्यालय में लगी है। सन् १९३९ में जब वे कुलपति पद से निवृत हुए तो राजा महाराजाओं ने सोने के थाल में रखकर सात लाख रुपये भेंट किये। महामना ने थाल को स्पर्श करके दान स्वीकार किया और नव नियुक्त सर राधाकृष्णन् को इंगित करके कहा विश्वविद्यालय के लिए इन्हें दे दें। एक और मर्मस्पर्शी कथा सुन लें। वकालत की उन्होंने अलविदा कह दिया था पर सन् १९२२ के चौरीचौरा कांड में अनेक युवकों को फाँसी की सजा हुई और केस इलाहाबाद हाईकोर्ट में था। देश की सेवा हित मालवीय जीने फिर से काला कोट पहना और अभियुक्तों की ओर से बहस की। १५६ लोगों को फाँसी की सजा से मुक्त करा लिया। वैâसी अद्भुत बहस थी कि जिसके दौरान स्वयं मुख्य न्यायाधीश सर ग्रिमउड पीयर्स ने बीच में तीन बार अपनी कुर्सी से उठकर मालवीय जी का नमन किया। बहस के बाद ग्रिमुउड ने कहा केस का पैâसला क्या होगा यह कहा नहीं जा सकता। पर एसी अपील में ऐसी बहस कोई नहीं कर सकता। हाईकोर्ट के इतिहास की यह अनुपम और अनूठी घटना है। संत बख्श िंसह ने उन्हें सांकेतिक फीस के रूप में दस हजार रुपये देने चाहे पर मालवीय जी ने कहा– स्वतंत्रता सेनानी इन अभियुक्तों के लिए मैं कोई फीस नहीं लूँगा। यह राशि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को दे दी गयी। श्रीमान् लोगों, उन्होंने विश्वविद्यालय के लिए र्इंट पत्थर के भवन ही नहीं बनाये उसे आचार्यों से सम्पन्न किया, आज भी लोग याद करते हैं, दे बाबा, ध्रुव जी, िंकग,बीरबल सहानी, आचार्य नरेन्द्र देव, राधाकृष्णन, सी.वी. रमन को। उन्होंने तो महान वैज्ञानिक एलबर्ट आईन्सटीन को भी यहाँ आने का निमंत्रण दिया था। वे अिंहसावादी कांग्रेसी थे पर वे देशभक्त क्रांतिकारियों को बिना झिझक शरण देते थे आपको ज्ञात हो कि काकोरी काण्ड में फांसी चढ़ा वीर राजेन्द्र लाहिड़ी इसी विद्यालय का छात्र था। वे धर्म से कभी डिगे नहीं, पारिवारिक वृत्ति कथावाचन भी नहीं छोड़ा–
एकादशी के दिन आर्ट्स कालेज में एकादशी की कथा सुनाते थे गीता पर प्रवचन करते, गांधी जी जब अनशन कर रहे थे, उन्हें ये भागवत कथा सुनाते ते। स्वास्थ्य के प्रति सजग थे, सभी को व्यायाम करने, दूध पीने की सलाह देते थे कला के पारखी थे, पहलवानों को प्रोत्साहित करतेथे, स्वयं श्वेत पर भव्य वेशभूषा धारण करते थे और उन्होंने हरिजनों को आभूषण धारण करने का अधिकार दिलाया। जीवन के प्रारम्भिक समय में ही हिन्दी को अदालत में स्थान दिलाया। उनका दल क्या था इस बाबत रोचक कथा है कि कुम्भ मेले में विरोधियों को उत्तर देते हुए उन्होने कहा था कुछ लोग मुझे इस दल को छोड़कर उस दल में सम्मिलित होने का दोषारोपण किया करते हैं। मैं तो किसी भी दलको नहीं जानता। मैं तो केवल एक ही दल को मानता हूँ और वह है तुलसी दल। और महामना ने अपनी जेब से तुलसी दल निकालकर सबको चकित कर दिया।
प्रिय श्रोताओं, प्रसाद रूप में भी आपको तुलसी दल देता हूँ और मेरा प्रिय शिष्य बता रहा है कि मध्याह्न भोजन का समय हो गया। विदा दीजिये, यह कहकर सूत जी जाते भये।
इति श्री मालवीय पुराणे– मदन मोहन कथायां– महामना स्मरण नामो
षष्टम् अध्याय:।
यहाँ कथा पूरी होती भयी। वैसे कथा विराट है और अपना क्षमता के अनुरूप मैंने संक्षेप में कथा कही– अभी बहुत कुछ है जो कहा नहीं गया। यह कथा सुनकर सभी श्रोता विश्वविद्यालय के फाटक की ओर दौड़ गये– कला भवन और विश्वनाथ का दर्शन करने और विश्व के बृहत्तम विश्वविद्यालय का दर्शन करने।
बसन्त पंचमी ६ फरवरी १९१६ को एक भव्य समारोह में भारत के वाइसराय लार्ड इरविन ने विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया। ४ वर्ष भवन निर्माण की अवधि में माँ वसंत ने सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल के भवनों में विश्वविद्याल की पढ़ाई आरंभ करवायी बहुत ही लम्बी कथा है। महामना का भव्य स्वप्न अभी भी अधूरा है– गंगा तट पर ब्रह्म वेला में वेदपाठ करते विद्यार्थी कहीं नहीं दिखते, बिरला मंदिर के चतुर्दिक केनाल भी सूखी है। नाट्य विद्यालय, पशु चिकित्सा विज्ञान, वृक्ष आयुर्वेद, कृषि विद्यालय, देशी कला कौशल विभाग अभी तक नहीं बना है। एक भारत भवन और भारत की सभी भाषाओं के पुस्तकालय की चर्चा थी। डा. करण सिंह चाहते थे कि यहां एक प्लेनेटोरियम बने। हिन्दी-संस्कृत तो अब देश में ही नहीं चलती– राष्ट्रभाषा अंग्रेजी देश में शिक्षा का माध्यम बन गयी है।
महामना विश्वविद्यालय के बाहर उसकी ओर पीठ किये खड़े हैं, काश! वे अन्दर आ सकते। अभी हाल में शिलान्यास स्थल पर चहारदिवारी बन गयी है– मैंने आत्मा की शान्ति नहीं कहा क्योंकि महामना अमर हैं, वे आज भी परिसर में परिक्रमा करते रहते हैं। आज आपके समक्ष महामना की कथा कहकर मैं कृतार्थ हो गया– मेरा तन, मन पवित्र हो गया। आप सब भाग्यवान है कि इस विश्वविद्यालय में अध्ययन अध्यापनरत हैं। आप मुझे आशीर्वाद दें कि महामना के पुण्य चरण में मेरी निष्ठा सदा बनी रहे।
इति शम
प्रत्येक शूद्र को अधिकार है कि वह अपने घर में भगवान् की प्रतिमा रखे। मेरी इच्छा है कि प्रतिमा के रूप में भगवान् को सबके घर पहुँचा दूँ, ताकि सभी लोग भगवान् का पूजन करें।
-महामना पं. मदन मोहन मालवीय